25 जून 2023, सुबह 05:02
जैविक खाद तैयार करने की विधियाँ
नाडेप इस विधि को ग्राम पूसर जिला यवतमाल महाराष्ट के नारायम देवराव पण्डरी पाण्डे द्वारा विकसित की गई है। इसलिये इसे नाडेप कहते हैं। इस विधि में कम से कम गोबर का उपयोग करके अधिक मात्रा में अच्छी खाद तैयार की जा सकती है। टांके भरने के लिये गोबर, कचरा (बायोमास) और बारीक छनी हुई मिटटी की आवश्यकता रहती हैं। जीवांश को 90 से 120 दिन पकाने में वायु संचार प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है। इसके द्वारा उत्पादित की गई खाद में प्रमुख रूप से 0.5 से 1.5% नत्रजन, 0.5 से 0.9% स्फुर एवं 1.2 से 1.4% पोटाश के अलावा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं। निम्नानुसार विभिन्न प्रकार के नाडेप टाकों से नाडेप कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है ।
पक्का नाडेप ईटों के द्वारा बनाया जाता है । नाडेप टांके का आकार 10 फीट लंबा, 6 फीट चौड़ा और 3 फीट ऊंचा या 12*5*3 फीट का बनाया जाता है। ईटों को जोडते समय तीसरे, छठवे एवं नवें रद्दे में मधुमक्खी के छत्ते के समान 6''-7'' के ब्लाक/छेद छोड़ दिये जाते है जिससे टांके के अन्दर रखे पदार्थ को बाहृय वायु मिलती रहे। इससे एक वर्ष में एक ही टांके से तीन बार खाद तैयार किया जा सकता है ।
भू-नाडेप/ कच्चा नाडेप परम्परागत तरीके के विपरित बिना गड्डा खोदे जमीन पर एक निश्चित आकार (12फीट*5फीट*3फीट अथवा 10फीट*6फीट*3फीट) का लेआउट देकर व्यवस्थित ढ़ेर बनाया जाता है । इसकी भराई नाडेप टांके अनुसार की जाती है। इस प्रकार लगभग 5 से 6 फीट तक सामग्री जम जाने के बाद एक आयताकार व व्यवस्थित ढेर को चारों ओर से गीली मिट्टी व गोबर से लीप कर बंदकर कर दिया जाता है। बंद करने के दूसरे अथवा तीसरे दिन जब गीली मिट्टी कुछ कड़ी हो जाये तब गोलाकार अथवा आयताकार टीन के डिब्बे से ढेर की लंबाई व चौड़ाई में 9-9 इंच के अंतर पर 7-8 इंच के गहरे छिद्र बनाये जावे। छिद्रो से हवा का अवागमन होता है और आवश्यकता पड़ने पर पानी भी डाला जा सकता है, ताकि बायोमास में पर्याप्त नमी रहे और विघटन क्रिया अच्छी तरह से हो सके। इस तरह से भरा बायोमास 3 से 4 माह के भीतर भली-भांति पक जाता है तथा अच्छी तरी पकी हुई, भुरभुरी र्दुगंध रहित भुरे रंग की उत्तम गुणवत्ता की जैविक खाद तैयार हो जाती है ।
टटिया नाडेप भी भू-नाडेप की तरह ही होते हैं, किन्तु इसमें आयताकार व व्यस्थित ढेर को चारों और से लेप देने की जगह इसे बांस बेशरम की लकड़ी एवं तुअर के डंठल आदि से टटिया बनाकर चारों ओर से बंद कर दिया जाता हैं। इसमें हवा का आवगमन स्वाभाविक रूप से छेद होने के कारण अपने आप ही होता रहता हैं।
यह नाडेप के समान ही कम्पोस्ट खाद तैयार करने की विधि है । अंतर केवल इतना है कि इसमें अन्य सामग्री के साथ राक फास्फेट का उपयोग किया जाता है जिसके फलस्वरूप कम्पोट में फास्फेट की मात्रा बढ़ जाती है। प्रत्येक परत के उपर 12 से 15 किलो रांक फास्फेट की परत बिछाई जाती है शेष परत दर परत पक्के नाडेप टांके अनुसार ही टांके की भराई की जाती हैें और गोबर मिट्टी से लीप कर सील कर दिया जाता है । एक टांके में करीब 150 किलो राक फसस्फेट की आवश्यकता होंगी।
इस विधि को सर्वप्रथम 1931 में अलबर्ट हावर्ड और यशवंत बाड ने इन्दौर में विकसित की थी अत: इसे इंदौर विधि के नाम से भी जाना जाता है इस पध्दति में कम से कम 9x5x3 फीट व अधिक से अधिक 20*5*3 फीट आकार के गङ्ढे बनाए जाते हैं। इन गङ्ढो को 3 से 6 भागों में बांट दिया जाता है इस प्रकार प्रत्येक हिस्से का आकार 3*5*3 फीट से कम नहीं होना चाहिये। प्रत्येक हिस्से को अलग अलग भरा जावे एवं अंतिम हिस्सा खाद पलटने के लिए खाली छोड़ा जावें नाडेप टांका कम्पोस्ट खाद तैयार करने की विधि
नाडेप बनाने की विधि
बायोगैस स्लरी बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत ठोस पदार्थ रूपान्तरण गैस के रूप में होता है और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रूपान्तरण खाद के रूप में होता हैं। जिसे बायोगैस स्लरी कहा जाता हैं दो घनमीटर के बायोगैस संयंत्र में 50 किलोग्राम प्रतिदिन या 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है। उस गोबर में 80 प्रतिशत नमी युक्त करीब 10 टन बायोगैस स्लेरी का खाद प्राप्त होता हैं। ये खेती के लिये अति उत्तम खाद होता है। इसमें 1.5 से 2 % नत्रजन, 1 % स्फुर एवं 1 % पोटाश होता हैं। बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 20 प्रतिशत नाइट्रोजन अमोनियम नाइट्रेट के रूप में होता है। अत: यदि इसका तुरंत उपयोग खेत में सिंचाई नाली के माध्यम से किया जाये तो इसका लाभ रासायनिक खाद की तरह फसल पर तुरंत होता है और उत्पादन में 10-20 प्रतिशत बढ़त हो जाती है। स्लरी के खाद में नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषण तत्व एवं ह्यूमस भी होता हैं जिससे मिट्टी की संरचना में सुधार होता है तथा जल धारण क्षमता बढ़ती है। सूखी खाद असिंचित खेती में 5 टन एवं सिंचित खेती में 10 टन प्रति हैक्टर की आवश्यकता होगी। ताजी गोबर गैस स्लरी सिंचित खेती में 3-4 टन प्रति हैक्टर में लगेगी। सूखी खाद का उपयोग अन्तिम बखरनी के समय एवं ताजी स्लरी का उपयोग सिंचाई के दौरान करें। स्लरी के उपयोग से फसलों को तीन वर्ष तक पोषक तत्व धीरे-धीरे उपलब्ध होते रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट केंचुआ कृषकों का मित्र एवं भूमि की आंत कहा जाता हैं। यह सेन्द्रिय पदार्थ ह्यूमस व मिट्टी को एकसार करके जमीन के अंदर अन्य परतों में फैलाता हैं । इससे जमीन पोली होती है व हवा का आवागमन बढ़ जाता है तथा जलधारण क्षमता में बढ़ोतरी होती है। केंचुओं के पेट में जो रसायनिक क्रिया व सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया होती है, जिससे भूमि में पाये जाने वाले नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश एवं अन्य सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती हैं। वर्मी कम्पोस्ट में बदबू नहीं होती है और मक्खी एवं मच्छर नहीं बढ़ते है तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता है। तापमान नियंत्रित रहने से जीवाणु क्रियाशील तथा सक्रिय रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट डेढ़ से दो माह के अंदर तैयार हो जाता है। इसमें 2.5 से 3% नत्रजन, 1.5 से 2% स्फुर तथा 1.5 से 2% पोटाश पाया जाता है। तैयार करने की विधि: कचरे से खाद तैयार किया जाना है उसमें से कांच-पत्थर, धातु के टुकड़े अच्छी तरह अलग कर इसके पश्चात वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिये 10x4 फीट का प्लेटफार्म जमीन से 6 से 12 इंच तक ऊंचा तैयार किया जाता है। इस प्लेटफार्म के ऊपर 2 रद्दे ईट के जोडे जाते हैं तथा प्लेटफार्म के ऊपर छाया हेतु झोपड़ी बनाई जाती हैं प्लेटफार्म के ऊपर सूखा चारा, 3-4 क्विंटल गोबर की खाद तथा 7-8 क्विंटल कूड़ाकरकट (गार्वेज) बिछाकर झोपड़ीनुमा आकार देकर अधपका खाद तैयार हो जाता है जिसकी 10-15 दिन तक झारे से सिंचाई करते हैं जिससे कि अधपके खाद का तापमान कम हो जाए। इसके पश्चात 100 वर्ग फीट में 10 हजार केंचुए के हिसाब से छोड़े जाते हैं। केचुए छोड़ने के पश्चात् टांके को जूट के बोरे से ढंक दिया जाता हैं, और 4 दिन तक झारे से सिंचाई करते रहते हैं ताकि 45-50 प्रतिशत नमी बनी रहें। ध्यान रखे अधिक गीलापन रहने से हवा अवरूध्द हो जावेगी ओर सूक्ष्म जीवाणु तथा केंचुऐ मर जावेगें या कार्य नही कर पायेंगे। 45 दिन के पश्चात सिंचाई करना बंद कर दिया जाता है और जूट के बोरों को हटा दिया जाता है। बोरों को हटाने के बाद ऊपर का खाद सूख जाता है तथा केंचुए नीचे नमी में चले जाते है। तब ऊपर की सूखी हुई वर्मी कम्पोस्ट को अलग कर लेते हैं। इसके 4-5 दिन पश्चात पुन: टांके की ऊपरी खाद सूख जाती है और सूखी हुई खाद को ऊपर से अलग कर लेते हैं इस तरह 3-4 बार में पूरी खाद टांके से अलग हो जाती है और आखरी में केंचुए बच जाते हैं जिनकी संख्या 2 माह में टांके में, डाले गये केंचुओं की संख्या से, दोगुनी हो जाती हैं ध्यान रखें कि खाद हाथ से निकालें गैंती, कुदाल या खुरपी का प्रयोग न करें। टांकें से निकाले गये खाद को छाया में सुखा कर तथा छानकर छायादार स्थान में भण्डारित किया जाता है । वर्मी कम्पोस्ट की मात्रा गमलों में 100 ग्राम, एक वर्ष के पौधों में एक किलोग्राम तथा फसल में 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। वर्मी वॉश का उपयोग करते हुए प्लेटफार्म पर दो निकास नालिया बना देना अच्छा होगा ताकि वर्मी वॉश को एकत्रित किया जा सकें केंचुए खाद के गुण
हरी खाद मिट्टी की उर्वरा शक्ति जीवाणुओं की मात्रा एवं क्रियाशीलता पर निर्भर रहती है क्योंकि बहुत सी रासायनिक क्रियाओं के लिए सूक्ष्म जीवाणुओं की आवश्यकता रहती है। जीवित व सक्रिय मिट्टी वही कहलाती है जिसमें अधिक से अधिक जीवांश हो। जीवाणुओं का भोजन प्राय: कार्बनिक पदार्थ ही होते है और इनकी अधिकता से मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अर्थात केवल जीवाणुओं से मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। मिट्ट की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने की क्रियाओं में हरी खाद प्रमुख है। इस क्रिया में वानस्पतिक सामग्री को अधिकांशत: हरे दलहनी पौधों को उसी खेत में उगाकर जुताई कर मिट्टी में मिला देते है। हरी खाद हेतु मुख्य रूप से सन, ढेंचा, लाबिया, उड्द, मूंग इत्यादि फसलों का उपयोग किया जाता है।
अमृत पानी तैयार करने के लिए के लिए 10 किलोग्राम गाय का ताजा गोबर 250 ग्राम नौनी घी, 500 ग्राम शहद और 200 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम 200 लीटर के ड्रम में 10 किलोग्राम गाय का ताजा गोबर डालें उसमें 250 ग्राम नौनी घी, 500 ग्राम शहद को डालकर अच्छी तरह मिलायें# इसके पश्चात ड्रम को पूरा पानी से भर ले तथा एक लकड़ी की सहायता से घोल तैयार करें इस घोल को जब फसल 15 से 20 दिन की हो जावे तब कतार के बीच में 3 से 4 बार प्रयोग करें# इसके प्रयोग के समय मृदा में नमी का होना अति आवश्यक है। अमृत पानी के प्रयोग के पूर्व 15 किलोग्राम बरगद के नीचे की मिट्टी एक एकड़ में समान रूप से बिखेर दें।
एक एकड़ हेतु अमृत संजीवनी तैयार करने के लिये सामग्री में 3 किलोग्राम यूरिया, 3 किलोग्राम सुपर फास्फेट एवं 1 किलोग्राम पोटाश तथा 2 किलोग्राम मूंगफली की खली, 80 किलोग्राम गोबर एवं 200 लीटर पानी की आवश्यकता होती है । इसकों तैयार करने के लिए उक्त सामग्री को एक ड्रम में डालकर अच्छी तरह मिला दें और ड्रम के ढक्कन को बंद कर 48 घंटे के लिए छोड़ दें तथा प्रयोग के समय ड्रम को पूरा पानी से भर दे । जब खेत में पर्याप्त नमी हो तब बोनी के पूर्व इसे समान रूप से एक एकड़ में छिड़क दे। खड़ी फसल में जब फसल 15-20 दिन की हो जावे तब कतार के बीज में 3-4 बार 15 दिन के अंतर पर छिड़के यथा संभव पत्तों को घोल के संपर्क से बचाये।
अग्निहोत्र भस्म उच्चारण पर्यावरण की शुध्दि की वैदिक पध्दति है। खेत में, गांव में, घर में तथा शहर में पर्यावरण में स्वच्छता बनाये रखकर सूर्योदय व सूर्यास्त के समय मिट्टी तथा तांबे के पात्र में गाय के गोबर के कंडे में अग्नि प्रज्जवलित कर अखंड अक्षत (बिना टूटे चावल) चावल के 8-10 दानों को गाय के घी में मिलाकर हाथ अंगूठे, मध्य अनामिका व छोटी अंगुली से अग्निहोत्री मंत्र उच्चारण के साथ स्वाहा: शब्द के साथ आहुति दी जाती है।
सूर्योदय के समय-सूर्याय स्वाहा, सूर्याय इदम् न मम् (प्रथम आहूति के समय) |